अरे मन ! मुरख निपट गँवार |
बिगरत आपु बिगारत मो कहँ , नेकु न करत विचार |
कोटि-कल्प भटक्यो ज्यों शुकर, विष्ठा-विषय मझार |
बिनु सेवा जहँ पाइय मेवा, गयो न तेहि दरबार |
दोउ कर-कमल पसारि निहारति, तोहिं वृषभानुदुलर |
अस अवसर नर देह सुदुर्लभ, मिलत न बारम्बार |
साधन बिनुहिं 'कृपालु' द्रवत जो, को अस सरल उदार |
अरे मन ! तू वास्तव में अत्यन्त ही मुर्ख एवं नासमझ हे | तू
आप अपना भी नाश कर रहा हे , साथ ही मेरा भी नाश कर रहा हे | तू इस विषय में थोडा सा
भी विचार नहीं करता | तुझे सांसारिक विषय-वासना रूपी विष्ठा में शुकर की तरह भटकते
हुए करोड़ों कल्प बीत गए , फिर भी कुछ भी न पा सका | जिन किशोरी जी के दरबार में बिना
साधन के ही तू सब कुछ पा जाता, उस दरबार में तू हठ्वश कभी न गया | तुझे वृषभानुनंदिनी
अपनी दोनों कोमल भुजाओं को पसारे परख रही हे | एसा अवसर एवं देवदुर्लभ मानव-देह तुझे
बार-बार न मिल सकेगा |
'श्री कृपालु जी ' कहते हें कि सबसे बड़ी बात तो यह हे की वृषभानुनंदिनी
के सिवा ऐसा सरल एवं उदार ह्रदय वाला और तुझे कोन मिलेगा जो बिना साधन के ही शरणागत
को सदा के लिए अपना बना ले |